Tuesday 20 May 2014

भारत में सार्वजनिक नीति बनाने की प्रक्रिया का विचार


भारत की आजादी के तीन साल बाद वर्ष 1950 में संविधान लागू हुआ और गणराज्य बना जो सभ्य समाज के निर्माण पर जोर देता है। अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज और अमर्त्य सेन के अनुसार भारत पहला गैर –पश्चिमी  और गरीब देश था जो लोकतांत्रिक तरीकों से शासन चलाने के लिए प्रतिबद्ध हुआ।
आजादी के बाद 66 वर्ष बीतने के बाद भी सार्वजनिक नीति के निर्माण के लिए मूलभूत प्रक्रिया, व्यवस्था तथा प्रक्रियाओं का अभाव है।  जबकि संविधान में ऐसी प्रक्रियाओं की वृहद रुपरेखा है। सार्वजनिक नीति बनाने की प्रक्रिया का अभाव संघ और राज्य सरकार दोनों ही स्तर पर है। भारत में नीति निर्माण की प्रक्रिया से मुख्य रुप से निम्न लोग जुड़े हैं:

1             राजनीतिक प्रतिनिधि/ चुने हुए प्रतिनिधि
2             नौकरशाह और टेक्नोक्रेट
3            संविधानिक निकाय/ एजेंसियां

क्रियात्मक स्तर पर ,ये तीनों नीति निर्माण के निर्णायकों के रुप में काफी मजबूत कड़ी हैं। लेकिन संवैधानिक रुप से ऐसा नहीं हैं। समय के साथ स्थितियां साफ होती जाती हैं लेकिन भारत में नीति-निर्माण की प्रक्रिया को लेकर पिछले छ: दशकों में कोई बदलाव नहीं हुआ है। जिसके दो कारण हैं :  राजनीतिज्ञ और चुने हुए प्रतिनिधियों की  राजनीतिक समझ और प्रतिबद्धता औपनिवेशकि सोच से आगे नहीं बढ पायी है। दूसरे ,  अस्त व्यस्त प्रंबंध-संरचना प्रबंधन / नौकरशाही की  प्रशासनिक शक्ति को  जननीतियों के बनाने की प्रक्रिया को प्रभावित करती रही है। जिस पर संविधान में बल दिया गया है।


दूसरे शब्दों में , लोगों की आवाज इन दो समूहों के जरिए दबायी गयी है और इस तरह  वास्तविक लोकतांत्रिक शासन प्रणाली की दोहरी वस्तुनिष्ठता पारदर्शिता और जवाबदेही के स्तर पर जननीतियों के निर्माण में अवमूल्यित हो चुकी है। चूंकि, यह देखा जाता रहा है कि संवैधानिक निकायों/ एजेंसियों का प्रदर्शन तुलनात्मक रुप से सरकार के दो अन्य  स्तंभो से गुणात्मक रुप से बेहतर है।  हालांकि , सांवैधानिक निकायों/ एजेंसियो द्वारा देय सार्वजनिक सुविधाओं व जवाबदेही संबंधी समस्याओं को उनकी संवैधानिक प्रतिबद्धता और प्रभावी उपयोगिता के आधार पर सुनिश्चित किया जाना है। 

भारत में संघीय सरकार के स्तर पर सार्वजनिक नीति बनाने की वर्तमान प्रक्रिया क्या कहती है?  किसी भी नीतिगत परिवर्तन के विचार का प्रस्ताव ज्यादातर शीर्ष नेतृत्व से आता है। इस प्रक्रिया में विशेष तौर पर दो तरह के लोग शामिल हैं। पहला अफसरशाह , जो कुछ टेक्नोक्रेट 
( तकनीकी जानकार) के साथ संबंधित क्षेत्र में वृहद स्तर पर नीति की रुपरेखा बनाते हैं। हालांकि , किसी भी नीति –निर्माण के लिए केन्द्रीय सचिवालय द्वारा कुछ शीर्ष नौकरशाहों और प्रतिनिधिय मार्गदर्शिका तैय्यार करते हैं। नौकरशाह नीति के प्रारुप और अवधारणा को तैय्यार करने के बाद दूसरी सरकारी एजेंसियों के साथ इसे साझा करते हैं।  इन एजेंसियों में संघ और राज्य सरकार के मंत्रालय और विभागों को टिप्पणियों / विचार के लिए  भेजा जाता है। एजेंसियों में सहमति के बाद प्रारुप का दस्तावेज चुने हुए प्रतिनिधियों की सहमति , बहस और अनुमोदन के लिए भेजा जाता है। यह प्रक्रिया यहां खत्म होती है। कई बार अनेक कारणों के चलते नीति-प्रारुप का दस्तावेज वापस आता है और प्रतिनिधियों और अफसरशाहों के बीच अटका रहता है। ये कारण आम लोगों के लिए गोपनीय माना जाता है ।


किसी भी उदार लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वाले  देश में सार्वजनिक नीति निर्माण के लिए ऐसी कामचलाऊ व्यवस्था का कोई स्थान नहीं है। लेकि इसके उलट नीति-निर्माण में में गलत प्रणाली का अनुकरण हो रहा है। इसके अलावा, क्यों नीति-निर्माण की प्रक्रियाओं और निर्णयों को लोकतांत्रिक नहीं बनाया गया। क्या कारण है कि उदारावादी लोकतंत्र होकर भी हमारा नीति-निर्माण कुछ लोगों की आपसी सहमति तक ही सीमित रह जाता है?  क्यों नहीं हम सार्वजनिक नीति बनाने की प्रक्रिया को लोगों तक ले जाकर इसे विस्तार देते हैं? ये महत्वपूर्ण सवाल हैं जिन पर ध्यान देने की जरुरत है ताकि सार्वजनिक-नीतियों की गुणवत्ता में सुधार हो। बड़े स्तर पर नीतियों की गतिहीनता से हाल के बरसों में संसद के काम पर बुरा असर पड़ा है। गंभीरता से विचारकर जननीतियों के निर्माण प्रक्रिया के लोकतांत्रीकरण के बारे में अनुभव करने में सक्षम संस्था को अस्तित्व में लाया जाना है। दो रोचक विश्लेषण हैं जो कि प्रांसगिक और दिलचस्प हैं :
शिशिर प्रियदर्शी ने भारतीय कृषि क्षेत्र में विश्व व्यापार संगठन से हुए समझौते के संदर्भ में  व्यापारिक नीतियों के कई पहलुओं पर अध्ययन किया । उनके विश्लेषण का मुख्य केन्द्र था कि कैसे  समझौतों के निर्णय में किस हद तक लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं का अनुपालन किया गया। उन्होंने समझौते के प्रस्ताव के तरीकों , विचार –विमर्श और तय हुए सहमतियों के प्रस्ताव में फैसलों और प्रक्रिया का अध्ययन किया। अपने अध्ययन में उन्होंने  उन लोगों की भागीदारी का अध्ययन किया जो इन समझौतों से प्रभावित होते हैं जैसे- किसान , नागरिक- समाज, अकैदमिक संस्था,  चिंतक, राज्य सरकार , उद्योग आदि। 


अरुण मायरा के अनुसार , सभी लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सहमति बना पाना बड़ी चुनौती है। जैसा कि संयुक्त राज्य अमेरिका का हालिया अनुभव इसका प्रमाण है। यह स्थिति भारत में और अधिक कठिन है। चूंकि, चुनौतियों से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है। इसलिए, भारत में नीति-निर्माण में प्रभावी तकनीक और परमर्श आधारित नीति -निर्माण की प्रक्रिया को लागू करना चाहिए ताकि निर्णय लेने की गति को तेज किया जा सके।  उन्होंने भविष्य के लिए भारत के संदर्भ में  सही ही कहा है कि नीति सुधार... इसके लिए नीति बनने की प्रकिया पर ध्यान देने की जरुरत है। जिसके लिए सिर्फ नीति की घोषणा करने की तुलना में विभिन्न वर्गों का प्रतिनिधित्व ,संसाधन जुटाना , प्रक्रिया और प्रकिया की निगरानी है।

इस बहस को आगे बढाने की जरुरत है ताकि सार्वजनिक-नीति के बनने की प्रक्रिया के  लोकतांत्रीकरण से संबंधित यह बहस रचनात्मकता के साथ अधिक से अधिक आगे जाए।



-        -बी. चन्द्रशेकरन

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